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Monday 6 August 2012

हर दिन बिकती है सैकड़ों किलो सुपारी !!!



कोई खाना खाने के बाद मुंह का स्वाद बदलने के लिए सौंफ सुपारी खाता है तो किसी को सकेला का स्वाद बड़ा भाता है। खासतौर से जिस तरह पुरुषों को गुटके की तलब लगा करती है, उसी तरह महिलाएं सुपारी की दीवानी होती हैं। करंट हो या रसगुल्ला या फिर खस सुपारी...। अपने शहर में बिकने वाली सुपारी की बात ही अलग है। यही वजह है कि भले ही पाउच में बिकने वाली सुपारियों ने सुपारी जगत में अपनी घुसपैठ कर ली है लेकिन खुली बिकने वाली सुपारी का डंका सुपारी जगत में आज भी बज रहा है। 


हमारे शहर की छोटी सी दुनिया में कई चीजें ऐसी हैं जिनका जिक्र किए बिना शहर की बात अधूरी सी लगती है। एक ऐसी ही चीज है सुपारी। देखने में यह भले ही छोटी सी लगती है लेकिन इसकी खुश्बू और मिठास ने शहर को खास पहचान दी है। कानपुर के बाद देश में आगरा एकमात्र ऐसा शहर है जहां से देश के कई शहरों में मीठी सुपारी सप्लाई की जाती है। शहर में सुपारी का काम पचासियों साल से हो रहा है। खासतौर से चित्तीखाना सुपारी का एकमात्र थोक बाजार बना हुआ है। यहां स्थित आठ-दस दुकानों पर हर तरह की सुपारी बिकती है। यहां से प्रतिदिन करीब 100 किलो मीठी व फीकी सुपारी अन्य शहरों में भेजी जाती है। 25 साल से सुपारी के काम में लगे अमित बताते हैं कि वर्तमान में चित्तीखाना में तकरीबन 50 तरह की मीठी सुपारियां बिकती हैं। इनमें करंट, सकेला, सौंफ मिक्स, इलायची वाली, चिकनी, लच्छा सुपारी, रसगुल्ला, मेवा मिक्स, खस, खजूर सुपारी, छुआरा सुपारी, दूध मिक्स आदि प्रमुख हैं। खस सुपारी सबसे महंगी है। इसकी कीमत 2000 रुपये किलो है है वहीं अन्य सुपारियों की कीमत 250-300 रुपये किलो हैं। 

ऐसे तैयार होती है सुपारी 

सुपारी पेड़ का एक फल होता जो मुख्यत: केरल तथा आसाम में पैदा होता है। यहां से साबुत सुपारी नागपुर, इंदौर और ग्लावियर पहुंचती है। ये तीनों मंडिया सुपारी की मुख्य मंडी कहलाती है। इन मंडियों से सुपारी विक्रेता थोक में सुपारी खरीदते हैं। साबुत सुपारी की कीमत 180-190 रुपये किलो है। आगरा में लाकर इन्हें भूना जाता है। फिर काटा जाता है। अंत में इन्हें अलग-अलग साइज में तैयार किया जाता है। जो लोग फीकी सुपारी खाने के शौकीन होते हैं, उनके लिए फीकी सुपारी अलग कर दी जाती है, बाकी सुपारी में खुश्बू व फ्लेवर डालकर मनपसंद सुपारी तैयार की जाती है। अमित बताते हैं कि सुपारी तैयार करते समय मुख्यतौर पर चीनी, फ्लेवर व पीपरमेंट डाला जाता है। खाने वाले रंग डालकर इन्हें लाल, पीला बनाया जाता है।

कन्नौज से खरीदी जाती है खुश्बू

सुपारी के कद्रदान सुपारी की महक सूंघकर आप पता लगा लेते हैं कि ये सुपारी कौन सी है। लेकिन, दुकानवालों को यह महक बहुत महंगी पड़ती है।  सुपारी में डाली जाने वाली खुश्बू कन्नौज से आती है। इस खुश्बू की कीमत 1500 रुपये प्रति किलो से शुरू होकर पांच-दस लाख रुपये प्रति किलो तक पहुंचती है। खस सुपारी में एक लाख रुपये प्रति किलो की खुश्बू डाली जाती है, यही कारण है कि यह सुपारी अन्य सुपारियों की तुलना में महंगी होती है। यह खुश्बू (इत्र) पेड़ से निकाला जाता है।


कहां जाती है सुपारी

मुंबई
दिल्ली
धुलिया
सहारनपुर
बनारस
बरेली

बाहर है इन सुपारी की डिमांड

मिक्सचर
लच्छा सुपारी
मावा मिक्सचर
सौंफ मिक्सचर

पाउच के चलते आधी हुई बिक्री

जबसे सुपारी पाउच में बिकना शुरू हुई हैं, खुली सुपारी की बिक्री आधी रह गई है। पूर्व में जहां 200-250 किलो सुुपारी रोज बिक जाया करती थी वहीं अब पाउच के आने से यह प्रतिदिन 100 किलो पर अटक गई है। बिक्री घटने का एक अन्य कारण खुली सुपारी की कीमतें बढ़ना है। आज से दो साल पहले जहां इनकी कीमत 150 रुपये किलो हुआ करती थी वहीं अब 300 रुपये किलो पहुंच गई है। इसके अलावा खुली सुपारी हर जगह नहीं मिलती जबकि पाउच जगह-जगह पर उपलब्ध होते हैं।

ज्यादा सुपारी खाना लाता है तोतलापन

यूं तो सुपारी स्वाद के लिए खाना नुकसान नहीं करता है लेकिन अगर इसकी अति कर दी जाए तो यह काफी नुकसानदेह साबित हो सकती है। ज्यादा सुपारी खाने से तोतलापन आता है। साथ ही इसे तैयार करने में कुछ चीजें ऐसी डाली जाती हैं जो स्वास्थ्य के लिए सही नहीं हैं।

सकेला हमेशा से रही है डिमांड में

लोगों के मुंह भले ही पाउच वाली सुपारी लग चुकी हो लेकिन एक बार जो सकेला का स्वाद चख लेता है, वह उसका मुरीद हो जाता है। यही कारण है कि शुरुआत से अब तक सकेला सुपारी की बिक्री सबसे ज्यादा होती है। सकेला के बाद करंट सुपारी भी काफी लोग खरीदते है।

बहुत ‘नमकीन’ है आगरा





रोज खाई जाती है15 हजार किलो दालमोंठ


पेठे की चाशनी में पगे हुए अपने शहर की मिठास की कायल तो पूरी दुनिया है लेकिन हमारा शहर कितना नमकीन है, इस बात का इल्म शायद आपको न होगा। हमारे आगरा में 15 हजार किलो दालमोंठ हर रोज खाई जा रही है...क्यों..चौंक गए ना। है भी बात चौंकाने वाली। कुरकुरे, लहर, अंकल चिप्स, लेज़ और हल्दीराम से सजी इस चटपटी ब्रांडेड दुनिया में देसी दालमोंठ के लिए ऐसा प्रेम...वाकई इसके स्वाद में कुछ तो बात है। 


बात करीब 190 साल पुरानी है। शहर के लोग स्वाद के शौकीन तो शुरू से रहे हैं, लेकिन उन दिनों बाजार में ऐसी कोई नमकीन नहीं मिलती थी जिसे खाकर लोग कह उठें, वाह मजा आ गया! यूं तो घरों में मुरमुरे, मूंगफली, मठरी आदि से नमकीन तैयार की जाती रही होगी लेकिन शहर के बाजारों में नमकीन का नामोनिशान नहीं था। तब लाला भीमसेन के मन में ख्याल आया कि क्यों न कुछ ऐसा प्रोडक्ट तैयार किया जाए जिसे लोग चाय के साथ नाश्ते के रूप में तो सर्व करें ही साथ ही वह आगरा का स्वाद बन जाए...। तो लीजिए, हो गया दालमोंठ का अविष्कार। बेसन के पतले-पतले सेव और मसूर को तल कर ऐसा मिक्सचर बनाया कि जिसने भी इसे खाया, कह उठा...अरे हुजूर वाह दालमोंठ कहिए..! भीमसेन-बैजनाथ के बाद शहर में कई व्यवसायियों ने दालमोंठ बनाना शुरू कर दिया। बात दीगर है कि फ्लेवर सबने अपने-अपने अनुसार रखे। आमतौर पर इसमें कालीमिर्च और लौंग का मसाला मिलाया जाता है। भीमसेन-बैजनाथ के योगेंद्र सिंघल बताते हैं कि सात पीढ़ियों ने उनके यहां दालमोंठ का काम हो रहा है। इसकी शुरुआत लाला भीमसेन ने की थी। उन्होंने यह काम 1825 के लगभग शुरू किया था। उनकी फर्म स्थापित हुई सन 1865 में। तबसे लगातार वे दालमोंठ-पेठे का काम करते आ रहे हैं। भीमसेन के बाद लाला बैजनाथ, लाला नत्थोमल, लाला फकीरचंद, द्वारिका प्रसाद और अब योगेंद्र सिंघल तथा उनके भाई इस काम को संभाल रहे हैं। भीमसेन के अलावा पंछी, गोपालदास, दाऊजी आदि फर्म भी पेठे के साथ दालमोंठ तैयार करती हैं।
‘पंछी पेठा-दालमोंठ’ के अंकित गोयल बताते हैं कि उनका परिवार इस काम में 1952 से लगा हुआ है। वे प्लेन तथा ड्रायफ्रूट्स वाली दालमोंठ की बिक्री करते हैं।
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तीस साल से कम हो गई सेल

हर दिन स्वाद बदलती इस दुनिया में दालमोंठ का टेस्ट लोगों की जीभ अब तक कैसे बरकार है, इस बाबत पूछे जाने पर दालमोंठ विक्रेताओं का कहना है जिस तरह शहर में हर चीज का अपना स्वाद है, उसी तरह दालमोंठ का टेस्ट भी अपनी जगह है। जो लोग दालमोंठ खरीदने आते हैं, वे दालमोंठ जरूर लेकर जाते हैं, फिर चाहें उसके साथ अन्य नमकीन क्यों न खरीदें। हां, यह बात अलग है कि मल्टीनेशनल कंपनियों के आने से नई पीढ़ी दालमोंठ के स्वाद को नहीं पहचान पा रही है। इस वजह से दालमोंठ की सेल बीते तीस सालों में करीब 25 प्रतिशत कम हो गई है।

कहां हैं दालमोंठ के दीवाने

दालमोंठ के  प्रेमी मुख्यत: उत्तर भारत में हैं। इसकी 70 फीसदी खपत शहर में होती है जबकि तीस प्रतिशत दिल्ली, पंजाब, राजस्थान, ग्वालियर आदि स्थानों पर भेजी जाती है। साउथ में दालमोंठ का चलन ज्यादा नहीं है। कई बार दालमोंठ के शौकीन विदेशों से आॅनलाइन भी इसकी डिमांड करते हैं। मुंबई, कोलकाता, मद्रास आदि स्थानों पर कोरियर से लोग दालमोंठ मंगाते हैं।

मिठाई से कम नहीं कीमत

जिस तरह देसी की मिठाई की कीमतें आसमान छू रही हैं उसी तरह देसी की दालमोंठ खाना भी हर किसी के वश की बात नहीं। प्लेन दालमोंठ 260, काजू वाली 360 और काजू, बादाम, पिस्ता  वाली दालमोंठ की कीमत 460 रुपये किलो है। वनस्पति घी में तैयार होने वाली सादा दालमोंठ 150-180 रुपये किलो तथा ड्रायफ्रूट्स वाली करीब 250 रुपये किलो है। योगेंद्र बताते हैं कि सन् 1970-75 में देसी घी की दालमोंठ की कीमत10-12 रुपये किलो थी। उस टाइम सेल भी बहुत अच्छी थी। जो लोग ताज देखने आते थे, पेठे के साथ दालमोंठ जरूर ले जाते थे। यहां रहने वाले लोग भी अपने मेहमानों के लिए खासतौर से दालमोंठ औैर पेठा पैक करवाते थे। यह चलन अब भी जारी है...शहर से बाहर कोई रिश्तेदारों के यहां जाए या शहर में कोई विदेशी आए, पेठा-दालमोंठ सबके हाथ में होता है।
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Tuesday 8 May 2012

बैंड बाजा बारात



बैंड बाजा बारात

हमारे आगरा में क्या-क्या फेमस है..? अब आप छूटते ही कहेंगे, ताजमहल...अरे जनाब ये तो शहर का बच्चा-बच्चा भी जानता है....अब आप कहेंगे...जूता...या पेठा...या फिर दालमोंठ...और हां, मेंटल हॉस्पिटल...। लेकिन आज हम बात इन सब चीजों से अलग कर रहे हैं। आज हम आपको आगरा के बैंड बाजों और बारात के बारे में बताने जा रहे हैं। आपने यह जुमला तो सुना होगा कि आगरा जैसी दावत और आगरा जैसी बारात पूरे हिंदुस्तान में कहीं नहीं। तो चलिए, आज संडे का दिन है आप फ्री होंगे, साथ ही मस्ती के मूड में होंगे। हमारे साथ बन जाइए बाराती और मजा लीजिए बैंड बाजों के बदलते ट्रेंड का।

प्रीति शर्मा 
भई, शादी की शोभा बारात के बिना नहीं है और बारात की शोभा तब तक नहीं है जब तक ऐसा बैंड न हो जिसे सुनते ही बाराती खुद-ब-खुद डांस करने पर मजबूर न हो जाएं...। एक जमाना था जब बैंड वालों का काम सिर्फ बैंड बजाना हुआ करता था ताकि जब बारात चढ़े तो बाजों की गूंज से अड़ोसी-पड़ोसी गलियों में यह बात पहुंच जाए कि भई, फलाने की शादी बहुत धूम धड़ाके से हो रही है। लेकिन, अब वक्त बहुत आगे पहुंच गया है। वर्तमान में बैंड बाजे वाले सिर्फ बारात का हिस्सा नहीं रह गए बल्कि बारात का मैनेजमेंट करने लगे हैं। अपनी बात को भव्य रूप कैसे दिया जाए, यह बात सोचना आप छोड़ दीजिए क्योंकि अब बैंडवालों ने यह जिम्मेदारी अपने कंधों पर ले ली है। आपकी बारात में घोड़े शामिल होंगे या ऊंट, आप बारातियों पर हेलीकॉप्टर से फूल बरसाना चाहते हैं या तोप से फूलों का ब्लास्ट करना चाहते हैं..सारा अरेंजमेंट बैंड वाले कर देंगे। आपको तो बस पैसा फेंकना है और तमाशा देखना है।
शहर में अगर बारात में बैंड बाजों के इतिहास पर नजर डालें तो बीते पचास-साठ साल से बैंड को सक्रिय रूप से बारात में शामिल किया जा रहा है। इससे पहले बारात को लेकर लोगों में ज्यादा क्रेज नहीं हुआ करता था। सादा ढंग से ही बारात निकला करती थीं। यूं तो शहर में सबसे पहला बैंड 1931 में बाबूलाल शर्मा ने शर्मा बैंड के नाम से शुरू किया था लेकिन यह कुछ समय बाद ही बंद हो गया। तब दल में 11 लोग शामिल हुआ करते थे और उन्हें एक रुपये तनख्वाह दी जाती थी। उसके बाद 1960 में मिलन बैंड ने दस्तक दी। उन दिनों बारातों में नाचने का रिवाज नहीं था। अत: इस बैंड ने अपने कुछ ऐसे बैंडवाले तैयार किए जो स्पेशल धुनों पर बारात के साथ नाचते थे ताकि इन बैंडवालों को नाचता देख अन्य बारातियों में भी उत्साह का संचार हो और वे भी जमकर झूमें। यह ट्रिक कमाल कर गई और लोगों ने बारातों में नाचना शुरू कर दिया। उस दौर में  बैंड वालों को अपनी शादी में बुलाना शान समझा जाता था। जो बारात बैंड बाजे के साथ दुल्हन के दरवाजे पर पहुंचती थी, उसकी बात ही निराली होती थी। दूर-दूर तक यह बात पहुंच जाती थी कि फलाने की शादी में बैंड बजा था।
शहर में उगते बैंड कल्चर के चलते 1980 में एक और बैंड अपने नए रूप-रंग के साथ सामने आया। यह बैंड था सुधीर बैंड। इस बैंड के माध्यम से शर्मा बैंड को ही पुर्नजीवित किया गया था। बाबूलाल शर्मा के बेटे सुधीर ने इसकी शुरुआत की थी। सुधीर बैंड के अमित शर्मा बताते हैं कि तब लोगों में बारात को लेकर शो बाजी नहीं थी अत: बैंड वाले भी इतने अधिक ट्रेंड नहीं हुआ करते थे। लेकिन, जबसे बारात ‘शादी का सबसे खास’ हिस्सा बनती जा रही है, तबसे बैंड बाजे वालों को भी बदलते रंग में खुद को ढालना पड़ रहा है। यही कारण है कि इन दिनों बारात की सजावट की जिम्मेदारी बैंडवालों ने उठानी शुरू कर दी।
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बारातियों से ज्यादा बैंडवालों की संख्या
जी हां,  अगर आप अपने लाड़ले की शादी में बैंड बाजों की धूम देखना चाहते हैं तो आपकी सेवा में 150 लोगों का बैंड हाजिर हो जाएगा। यानि जितने बाराती होंगे उतने ही तकरीबन बैंड वाले होंगे। बंटी और बबली फिल्म में अपने बैंड का जलवा दिखा चुके मिलन बैंड के भरत शर्मा बताते किसी भी अच्छी बारात में जितने बाराती होते हैं उतने ही करीब बैंडवालों की टीम होती है। बारात चढ़ते समय 500 मीटर तक बैंडवाले ही दिखाई देते हैं। यह लोगों की डिमांड पर निर्भर करता है कि उन्हें बारात में किस तरह की सर्विस। कोई ढोल वाले की डिमांड करता है तो कोई पाइप वाले कलाकारों की। यही कारण है कि इन दिनों बारातों में 80-120 बैंडवालों की टीम आम बात हो गई है।

जैसा देश, वैसी बारात
अब तक आपने जैसा देश वैसा भेष वाली कहावत तो सुनी होगी लेकिन इसी तर्ज पर आजकल ‘जैसा देश वैसी बारात’का चलन निकल पड़ा है। आप अगर पंजाबी हैं तो बारात में आपके लिए पंजाबी कलाकारों का इंतजाम हो जाएगा, अगर राजस्थानी फैमिली को बिलॉंग करते हैं तो सिर पर मटकी रखकर नृत्य करने वाली महिलाओं का ग्रुप आपकी बारात में शामिल कर दिया जाएगा। गुजराती से लेकर मारवाड़ी तक, हर प्रांत के कलाकार आप अपनी बारात में बुला सकते हैं....लेकिन इसके लिए आपको अपनी जेब ढीली करनी पड़ेगी। भरत बताते हैं कि आमतौर पर बैंड की टीम में सबसे पहले शहनाई चलती है, उसके बाद ढोल वाले। फिर भांगड़ा करने वाले कलाकार होते हैं...उनके पीछे पाइप बैंड के कलाकार चलते हैं। उनके पीछे दरबान होते हैं, घोड़े पर पुलिस फिर फोक डांस करने वाले कलाकार तथा अंत में बाराती होते हैं। इन कालाकारों को बारात में शामिल करने से एकतरफ जहां बारात में भव्यता बढ़ जाती है वहीं बारातियों का भी मनोरंजन होता रहता है। कई बार बाराती डांस एंजॉय तो करना चाहते हैं, लेकिन खुद डांस नहीं करते। ऐसे बारातियों का एंटरटेनमेंट ये कलाकार ही करते हैं। अगर आप बारात को और ज्यादा भव्य बनाना चाहते हैं तो इन दिनों मशाले जलाने का ट्रेंड भी दिखाई पड़ रहा है।


फूलों के ट्रेन में रवाना होती है बारात
जब दुल्हन रानी फूलों से सजी पालकी में बैठकर सजन घर आ सकती हैं तो दूल्हे राजा फूलों की ट्रेन में सवार होकर दुल्हन को लेने क्यों नहीं जा सकते?....तो लीजिए दूल्हे राजा आप अकेले ही क्यों, आपके मम्मी-पापा और सारे रिश्तेदारों के लिए फूलों की ट्रेन हाजिर है। इन दिनों बारातियों के लिए बैंड वालों द्वारा फूलों की ट्रेन का विशेष इंतजाम किया जा रहा है। 14 फुट लंबी और 14 फुट चौड़ी यह ट्रेन फूलों का गैलरीनुमा कवर्ड जाल होता है, जिसके भीतर से न कोई व्यक्ति बाहर निकल सकता है और न ही बाहर का व्यक्ति अंदर आ सकता है। अब चूंकि शहर के ट्रैफिक के तो आप भलीभांति परिचित है। उस पर अगर रोड पर बारात निकल जाए तो समझिए 20-25 मिनट गए काम से...। इसी समस्या से निजात पाने के लिए फूलों की ट्रेन का अविष्कार किया गया है। ताकि बाराती पूरी सड़क घेरने के बजाय ट्रेन के भीतर ही डांस करें।

हेलीकॉप्टर से बरसते हैं फूल
बहारों फूल बरसाओ मेरा महबूब आया है गीत अगर आज के दौर की बारातों के हिसाब से लिखा जाता तो गीत कुछ यूं होता, ‘हेलीकॉप्टर फूल बरसाओ मेरी बारात निकली है...’जी हां, अब फूल बरसाने का जिम्मा हेलीकॉप्टर का हो गया है। बारात के दौरान बीच-बीच में हेलीकॉप्टर से फूल बरसाने का जिम्मा भी अब बैंडवालों की टीम ने ले लिया है। यह हेलीकॉप्टर रिमोट से संचालित होता है। इसके अलावा तोप से फूलों का ब्लास्ट भी बारातों में देखा जा रहा है।

घोड़ी, रथ  और ओपन कार
यूं तो परंपरानुसार दूल्हे राजा घोड़ी पर बैठकर ही दुल्हन के दरवाजे पर पहुंचते हैं लेकिन अब घोड़ी की जगह रथ ने ली है। इस रथ में दो घोड़े होते हैं। कई बार दूल्हे को घोड़ी पर अथवा रथ पर बैठने में अजीब लगता है, ऐसे में वे ओपन कार की डिमांड करते हैं। वर्तमान में ओपन कार भी शहर के कुछ बड़े बैंड वालों द्वारा उपलब्ध कराई जा रही है।

लाखों रुपये की बारातें 
जितने रुपये में किसी मध्यमवर्गीय परिवार की लड़की की शादी संपन्न हो जाएगी, उतने रुपये बड़े घर की शादियों में सिर्फ बारातों पर खर्च किए जा रहे हैं। यूं तो शहर में ऐसी-ऐसी बारातें चढ़ी हैं जिनमें दो घंटे की बारात की शान के लिए रुपया पानी की तरह बहाया गया है, उनका जिक्र अगर छोड़ दिया जाए तब भी एक से दो लाख रुपये बारात का खर्चा आम बात हो गई है। आतिशबाजी, बारात के कलाकार, फूलों की सजावट, बग्गी, गुलाबबाड़, दरबान, घोड़े, ऊंट आदि के अलावा वर पक्ष के लोगों की डिमांड पर और भी खास इंतजाम किए जाते हैं।
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आज भी दीवाना बना रहे हैं ये गीत
- ये देश है वीर जवानों का 
- बहारों फूल बरसाओ मेरा महबूब आया है
- टकीला
- आज मेरे यार की शादी है
- ले जाएंगे, ले जाएंगे दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे
- दौर के हिसाब से फिल्मों के आयटम सॉंग्स
- विदाई के समय बाबुल की दुआएं लेती जा
- खुशी-खुशी कर दो विदा तुम्हारी बेटी राज करेगी

बॉलीवुड में बज रहा डंका
हमारे शहर के बैंडों का डंका बॉलीवुड में भी बज चुका है। बंटी और बबली फिल्म में जहां मिलन बैंड ने जमकर धमाल मचाया था वहीं मेरे ब्रदर की दुल्हन फिल्म में सुधीर बैंड का जलवा देखने को मिला। इतना ही नहीं मिलन बैंड दुबई में आयोजित होने वाले अन्तर्राष्ट्रीय महोत्सव में भारत का प्रतिनिधित्व कर चुका है। इस बैंड ने दिल्ली के जिया बैंड को टक्कर दी थी।

Monday 30 April 2012

खइके पान आगरा वाला...








यूं तो बनारस का पान दुनियाभर में मशहूर है लेकिन अपने आगरा का पान भी कम नहीं। यहां का मिठुआ और बनारसी बीड़ा मुंह में डालते ही लोगों पर अजब खुमारी छा जाती है। पान के शौकीनों पर पान का असर इतना जबरदस्त है कि जब तक वे दिन में दो-चार बीड़े चबाकर दांतों में सुपाड़ी नहीं फंसा देते तब तक जीभ को चैन नहीं मिलता।

प्रीति शर्मा 
पान-सुपारी की दुनिया में भले ही इन दिनों गुटखा अपना वर्चस्व कायम करने की जुगत में लगा है लेकिन फिर भी पान के दीवानों की नजदीकि हासिल नहीं कर पाया है। पान की पुड़िया खोलने के बाद पान मुंह में डालने और फिर उंगलियां चाटने में जो आनंद आता है, वो रस गुटखे का पाउच फाड़कर मुंह में डालने में कहां..। यही कारण है कि आज भी शहर में लाखों रुपये के पान हर रोज खाए जा रहे हैं। कोई बनारसी का शौकीन है तो कोई मिठुआ का। कोई जगन्नाथ पान खा रहा है तो कोई देसी चबा रहा है। हर पान की तासीर अलग है और हर का स्वाद अलग। कई लोग तो ऐसे हैं जो बीते 30-40 साल से हर रोज पान चबा रहे हैं। पान खाते-खाते उनके दांत लाल हो गए हैं लेकिन तबियत नहीं भरी। सुबह से पान की दुकान पर पहुंचते हैं देर रात तक दस-बीस पान चबा डालते हैं।
शहर में पान के इतिहास पर नजर डाली जाए तो यह काम मुगलकाल से  हो रहा है। राजस्थान के बियाना, मध्यप्रदेश के ग्वालियर, संदलपुर, बिलौआ आदि स्थानों से पान यहां आता है। सादा पान के थोक विक्रेता रविकांत गुप्ता बताते हैं कि उनका परिवार करीब 80 साल से इस काम में लगा हुआ है। शहर में पान पैदा नहीं होता, यह निकतवर्ती क्षेत्रों से मंगाया जाता है। खासतौर से राजस्थान और मध्यप्रदेश पास होने के कारण यही से सादा पान खरीदा जाता है। यह पान देसी होता है। वर्तमान में शहर में सादा पान (पान के पत्ते) की बिक्री करने वाले आठ होलसेलर विक्रेता हैं। पान की खरीद फरोख्त हर दिन सुभाष बाजार स्थित जामा मस्जिद के नीचे होती है। रविकांत बताते हैं कि पहले जहां लोग सिर्फ पान ही खाया करते थे वहीं अब गुटखा लोगों की जुबान पर चढ़ता जा रहा है। यही कारण है कि अब पान की बिक्री जहां 40 प्रतिशत रह गई है वहीं गुटखे के ग्राहक 60 फीसदी हो गए हैं। लेकिन, फिर भी पान के शौकीनों की कमी नहीं। यही कारण है कि प्रतिदिन यहां से लाखों रुपये के पान छोटे विक्रेताओं द्वारा खरीदे जाते हैं।
फ्रीगंज रोड स्थित श्यामबाबू पान भंडार को करीब 60 साल हो गए हैं। यह दुकान नानकचंद ने शुरू की थी। उसके बाद इसे रमनलाल ने संभाला। अब रमनलाल के पुत्र इस दुकान की देखरेख में लगे हैं। जिस वक्त ये दुकान खोली गई थी, उस समय शहर में पान की दुकानें कम ही थीं, साथ ही गुटखा भी नहीं था, अत: शौकीन लोग पान ही खाया करते थे। प्रदीप बताते हैं कि जब यह दुकान खोली गई थी, तब दिन भर में 500-600 पान बिकते थे लेकिन अब 200-250 पान की मांग रहती है। उन दिनों मीठा और तम्बाकू वाले पान ज्यादा चला करते थे। बच्चे और महिलाएं मीठे पान की मांग करती थे वहीं पुरुष तम्बाकू वाला पान खाते थे। दयालबाग स्थित श्रीकृष्ण पान भंडार के संचालक ताराचंद्र अग्रवाल बताते हैं कि उनकी दुकान1962 में उनके पिताजी ने खोली थी। उस समय जब यह दुकान खोली गई थी तब प्रतिदिन ढाई सौ से लेकर पांच सौ पान तक बिक जाया करते थे। लेकिन अब दिन भर में सौ से ज्यादा पान नहीं बिकते। वे हफ्ते भर का स्टॉक एक दिन मंडी से लेकर आते हैं।
सैय्यद मुर्शरत अली का खानदान इस काम में पिछले 90 साल से लगा है। 1987 में उन्होंने पान लगाना शुरू किया था। उससे पहले उनके पापा और दादा सादा पान बेचा करते थे। मुर्शरत बताते हैं कि उन दिनों तम्बाकू का जो पान तीस-चालीस पैसे में आता था, उस पान की कीमत आज चार रुपये है।

मुंह लगा है खास दुकान का पान
हमारे शहर में पान के ऐसे-ऐसे शौकीन मौजूद हैं जो पान खाते ही बता देते हैं कि यह पान किस दुकान का है। एक ऐसे ही शख्स हैं चंद्रा साहब। वे दिन में बीस-पच्चीस पान खा लेते हैं। पिछले बीस साल से वे नियमित तौर पर फ्रीगंज रोड स्थित एक दुकान से पान खरीदते हैं। पान विक्रेता के मुताबिक ये साहब उस समय से दुकान पर आ रहे हैं जब उनके पिताजी पान बनाते थे। चंद्रा साहब जैसे सैकड़ों लोगों को आज भी जब पान खाने की तलब उठती है तो वे ऐसे अकुला उठते हैं जैसे जल बिना मछली।
किसी को हरीपर्वत स्थित दुकान का पान पसंद है तो किसी को ताजगंज स्थित दुकान का। छत्ता बाजार, सदर, न्यू आगरा, लोहामंडी आदि क्षेत्रों में पान की कुछ ऐसी खास दुकानें हैं जहां से लोग गुजरते हैं तो दुकान को जरूर निहारते हैं।

पान के साथ रखने लगे कोल्डड्रिंक, कुरकुरे
जब से पान गुटखा अस्तित्व में आया है, पान विक्रेताओं को अपनी दुकान चलाने के लिए कई अन्य प्रयास भी करने पड़ रहे हैं। पहले जहां सिर्फ पान बेचकर ही घर का खर्चा चल जाता था वहीं अब दुकान पर पान के अलावा बीड़ी, सिगरेट, गुटखा, बिस्किट, कुरकुरे, नमकीन, कोल्डड्रिंक आदि चीजें भी रखनी पड़ रही हैं। कई पान विक्रेता ब्रेड बटर भी रखते हैं।


एक नजर इधर भी
देसी पान- यह पान अपेक्षाकृत मोटा होता है। इसका सूखा पत्ता चबाने पर सौंफ जैसी खुश्बू आती है। यह पान लगाकर जब खाया जाता है तो मुंह में आसानी से घुल जाता है। इसकी तासीर ठंडी होने से गर्मियों में ज्यादातर देसी पान की डिमांड की जाती है।
मघई पान- ये पान गर्म होता है।
बनारसी पान- तम्बाकू वाले पान के लिए बनारसी पान ही ज्यादातर लगाया जाता है। इसकी तासीर भी गर्म होती है।
जगन्नाथी पान-यह पान सबसे ज्यादा महंगा होता है।
पान की कीमत
मसाला पान-तीन रुपये
देसी पान- मीठा - पांच रुपये
तम्बाकू वाला पान- चार रुपये
वर्क वाला पान-दस रुपये
(इस पान में चांदी का वर्क लगा होता है, कई तरह की मीठी सुपाड़ी तथा गुलकंद डाला जाता है)


मलेशिया से हुई शुरूआत
माना जाता है कि पान खाने का चलन मलेशिया से शुरू हुआ था और अफ्रीका तक पहुंचा। लेकिन, वर्तमान में भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश में प्रमुख रूप से पान खाया जाता है। वियतनाम में पान को वहां की संस्कृति से जोड़ कर देखा जाता है। यहां पान और सुपारी को साथ रखने को शादी के संदर्भ में देखा जाता है। दक्षिण पूर्व एशिया में शादी के वक्त दूल्हा, दुल्हन के माता-पिता को पान भेंट कर दिया।

शाही शौक था पान खाना
भारत में शुरूआती दौर में पान खाना शाही शौक समझा जाता था। राजा-महाराज अपने साथ ऐसे दास-दासियां रखते थे जो राजाओं के साथ पानदान लेकर चला करते थे। चूंकि पान खाने से सांसों में महक आ जाती थी, अत: प्रेमी-प्रेमिकाओं के बीच भी पान खाने का चलन था। पान चबाना उस दौर में एक हद तक प्रेम का प्रदर्शन भी माना जाता था। सुपाड़ी को मेल और पान के पत्ते को फीमेल रूप में देखा जाता था। महिलाएं अपने होठ लाल रखने के उद्देश्य से भी पान खाती थीं। इतिहास की तस्वीरों में नूरजहां को कई जगह पान खाते हुए दिखाया गया है।


मुच्छड़ पानवाला
अगर आप मुंबई की गलियों से गुजर रहे हैं और पान खाने की तलब लगे तो मुच्छड़ पान वाला के पान का स्वाद जरूर चखिएगा। मुच्छड़ पानवाला का पान मुंबई में इतना प्रसिद्ध है कि यह दुकान पान के शौकीनों के लिए सुबह दो बजे तक खुली रहती है। यह दुकान जयकिशन तिवारी ने 1977 में शुरू की थी। अब आप सोच रहे होंगे कि इस दुकान का नाम मुच्छड़ पानवाला क्यों रखा गया..दरअसल जयकिशन के घर में सभी लोगों की मूंछें बहुत बड़ी-बड़ी हैं। भई, मूंछें इसान की शान होती हैं अत: दुकान का नाम मुच्छड़ पानवाला रखना भी शान की बात है।

महिलाओं के लिए पान की स्पेशल दुकान
पान खाने का शौक महिलाओं को भी होता है लेकिन वे पान की दुकान पर जाकर पान खरीदने में संकोच करती हैं। ऐसी महिलाओं के लिए दिल्ली की पान-पार्लर चेन, यामू पंचायत ने अहमदाबाद में आउटलेट खोला है। ऐसे कई अन्य आउटलेट गुजरात में खोले जाने हैं। हर आउटलेट में 15 महिलाएं कर्मचारी के तौर पर नियुक्त हैं। चार बहनों द्वारा शुरू किए गए इस आउटलेट में महिला ग्राहकों का स्वागत किया जाता है। यूं तो पुरुष भी यहां से बीड़ी-सिगरेट, पान खरीदने आ सकते हैं लेकिन अगर वे परिवार के साथ आएं तो उनका वेलकम बेहतर ढंग से होगा।
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Thursday 26 April 2012

एक बाथरूम हो सपनों का

प्रीति शर्मा
अगर आप अपने सपनों का महल बनवाने की तैयारी में हैं तो जितना ध्यान ड्राइंग रूम और बाकी रूम्स पर दे रहे हैं, उतना ही बाथरूम पर भी देना शुरु कर दीजिए। क्योंकि, अब बाथरूम सिर्फ नहाने के काम नहीं आता।  बाथरूम का मतलब हो गया है ऐसी जगह जहां आप सुबह की सुस्ती मिटा सकें और दिन भर की भागदौड़ के बाद शाम को चंद पल सुकून के बिता सकें।  बाथ टब की लहरों में खोकर भूल जाएं बॉस के साथ हुई चिकचिक। शावर के गुनगुने पानी में झरने का आनंद ले सकें और धीमी-धीमी रोशनी के बीच मनपसंद म्यूजिक सुनते हुए बाथ टब में ही सो जाएं। शॉर्ट में बोलें तो ‘होम स्पा’। जी हां, यही है लग्जरियस बाथरूम की परिभाषा।क्टर’ पर कितना ध्यान दिया जा रहा है, बता रही है प्रीति शर्मा की यह रिपोर्ट। 

अमूमन आप बाथरूम बनवाने में कितना खर्च कर सकते हैं?....एक लाख, दो लाख, तीन लाख...चार लाख..। गिनती छोड़िए जनाब, आपके ‘लाखों’ का कोई अंत नहीं होगा क्योंकि अब बाथरूम करोड़ों के बन रहे हैं। यूं तो आज भी बाथरूम की एक्सेसरीज वही हैं जो आज से दस साल पहले हुआ करती थीं लेकिन उनका लुक देखकर आपको लगेगा कि इन्हें बाथरूम में नहीं ड्राइंगरूम में लगाना चाहिए। क्योंकि, बाथरूम अब शो पीस बन गए हैं। बाथटब से लेकर वेस्टर्न कमोड तक, डिजाइन से लेकर टेक्नोलॉजी तक, सब कुछ बदल गया है। फ्लोर टाइल्स इतने गजब के हैं कि बाथरूम में पैर रखने से पहले आप सोचेंगे कि कहीं टाइल्स मैले न हो जाएं। तो चलिए शुरुआत करते हैं हम बाथ फिटिंग्स के साथ। इन दिनों चलन है सीपी (क्रोम प्लेटेड) फिटिंग का। कुछ समय पहले तक वॉल मिक्सर की डिमांड थी जिसमें गर्म-ठंडे पानी के लिए अलग-अलग नल लगे होते थे लेकिन अब कन्सील्ड डायवर्टर की मांग की रही है। इसमें गर्म-ठंडे पानी के लिए एक ही नल होता है। इसकी कीमत कंपनी के हिसाब से अलग-अलग है लेकिन, औसतन कीमत 22 से 25 हजार है। एक कंपनी ऐसा डिजिटल सिस्टम लेकर आई है जिसमें शावर को कंट्रोल किया जा सकता है। यानि आपके ऊपर पानी की बूंदे कितनी तेजी से गिरें, कैसे गिरें, सब आपके हाथ में है।
लग्जरी बाथरूम में जिस चीज में सबसे ज्यादा बदलाव आया है वह है बाथटब। पहले जहां बाथटब चीनी मिट्टी के बनते थे वहीं अब एक्राइलिक शीट ने चीनी मिट्टी की जगह ले ली है।  इकनॉमिक क्लास के लिए यूं तो आज भी सात-आठ हजार रुपये में ऐसा बाथटब उपलब्ध हैं जिसमें ऊपर से पानी भरना पड़ता है लेकिन लग्जरी बाथ के शौकीनों के लिए ऐसे-ऐसे बाथटब आ गए हैं जिसमें टब के भीतर बैठे-बैठे आप नदी में नहाने का मजा ले सकते हैं। इसके लिए आपको कुछ नहीं करना, बस टच स्क्रीन पैनल पर मनपसंद बाथ आॅप्शन को टच कर ना है। अगर बुलबुले वाले पानी से नहाने का मन कर रहा है तो पानी में शैम्पेन जैसे बुलबुले उठ जाएंगे। दूसरा आॅप्श्न टच करते ही पानी में कल-कल की आवाज आने लगेगी। एक अन्य आॅप्शन है पानी के बुलबुलों से मसाज का।  इस बाथटब की कीमत 65 से 70 हजार रुपये तक है। इसके अलावा ‘शाही स्नान’ के शौकीन अपने बाथरूम में ऐसा भी टब लगवा रहे हैं जो शावर के वक्त ऊपर से कवर हो जाता है। इस रॉयल बाथ का मजा अगर आप फेवरेट म्यूजिक के साथ लेना चाहते हैं तो म्यूजिक सिस्टम है ना। इस टब की कीमत तकरीबन साढ़े तीन लाख रुपये है। बाथ फिटिंग्स में डील करने वाली फर्म रामसंस के ओनर महेंद्र पोपटानी बताते हैं कि बाथरूम घर का लग्जरियस हिस्सा बनता जा रहा है। लोग यहां बढ़िया से बढ़िया से एक्सेसरीज लगवाना चाहते हैं। यही कारण है कि लोग मंहगा से महंगा बाथरूम बनवा रहे हैं। कुछ साल पहले तक जिस तरह रेडीमेड किचेन की डिमांड लोगों के बीच थी, वैसी ही मांग अब रेडीमेड बाथरूम की हो रही है।

रिमोट वाले कमोड
रिमोट से टीवी, कूलर, कार तो आॅपरेट होते देखा है लेकिन रिमोट से कमोड आॅपरेट होना...! जी हां, एक कंपनी ने कुछ ऐसे ही कमोड डिजाइन किए हैं जिनमें आॅटोमेटिक सेंसर्स लगे होते हैं। इनकी सीट रिमोट से ऊपर उठ जाती है तथा पानी सेंसर्स की सहायता से निकलता है। यानि आपको कुछ करने की जरूरत नहीं, बस सीट पर बैठना है। लेकिन, सीट पर बैठना इतना आसान नहीं क्योंकि ऐसा कमोड खरीदने के लिए आपको 1.5 से 2.5 लाख रुपये तक खर्च करने पड़ेंगे। वर्तमान में आगरा व आसपास के शहरों में जो वेस्टर्न कमोड लगवाए जा रहे हैं उनमें कन्सील सिस्टम लगा हुआ है। इस सिस्टम में पानी का टैंक दीवार के भीतर फिट किया जाता है। इसके अलावा ऐसे भी कमोड आ गए हैं जिसमें ऊपर की सीट उठाने के बाद आॅटोमेटिक तरीके से अपने आप ढक जाती है। सर्दियों में सीट ठंडी न लगे, इसके लिए सीट गर्म रखने वाली टेक्नोलॉजी भी प्रयोग में लाई जा रही है।


कैबिनेट के साथ वाश बेसिन
जब बाथरूम का पूरा लुक ही चेंज करने की कवायद चल रही है, ऐसे में वाश बेसिन भला कैसे पीछे रह सकते हैं। ग्लास लुक वाले वाश बेसिन्स काफी पहने से चलन में हैं, अब नया ट्रेंड आया है कैबिनेट वाले वाश बेसिन का। इसमें कैबिनेट के साथ ही मिरर भी लगा हुआ होता है। बाथरूम से संबंधित सामान इधर-उधर रखने के बजाय सीधे कैबिनेट में रखिए। ये कैबिनेट स्टील, मार्बल आदि की है। इनमें जरूरत के मुताबिक ड्रॉअर लगी होती हैं। मिरर की डिजाइन भी कैबिनेट की डिजाइन से मेल खाती हुई बनाती जाती है। इस सेट को वैनिटी कहा जाता है। ये वैनिटी आपको 15 हजार से लेकर 70 हजार तक में मिल जाएगी। कीमत के मुताबिक इनमें नल की फिटिंग होती है। आमतौर पर नलों में सेंसर लगाया जा रहा है। इसमें हाथ नल के नीचे ले जाते ही पानी अपने आप आने लगता है।

इम्पोर्टेड टाइल्स बढ़ा रहे शोभा
मार्बल इन दिनों आउट हो गया है। उसकी जगह इम्पोर्टेड टाइल्स ने ली है। कारण, इन टाइल्स पर केमिकल का खास असर नहीं होता, फलत: ये काफी चलते हैं और जल्द ही खराब नहीं होता। खारे पानी में भी इनकी गुणवत्ता बरकरार रहती है। कई साल तक प्रयोग में लाने के बाद भी इनकी शाइनिंग में कमी नहीं आती। यही कारण है कि इन टाइल्स की कीमतें काफी ऊंची हैं। स्पेन, थाईलैंड आदि देशों से मंगाए जाने वाले इन टाइल्स की कीमत 90 रुपये स्क्वैयर फीट से लेकर 485 रुपये स्क्वैयर फीट तक है। वहीं टाइल्स के बीच में लगने वाले पैनल की कीमत 200 से 2000 तक है। वॉल टाइल्स के अलावा फ्लोर टाइल्स भी काफी अच्छे आ रहे हैं। मार्बल के स्थान पर प्रयोग में आने वाले कम्पोजिट मार्बल टाइल्स अमूमन 250 से 500 रुपये स्क्वैयर फीट के हिसाब से उपलब्ध हैं। अगर आपको कुछ अलग तरह के टाइल्स से अपना बाथरूम सजाना है तो माइक्रोक्रिस्टल टाइल्स प्रयोग में ला सकते हैं। ये पीले नहीं पड़ते तथा ग्लास जैसा लुक देते हैं।

रेडीमेड बाथ केबिन
अगर आपके पास बाथरूम बनवाने के समय नहीं है लेकिन नहाना रॉयल तरीके से चाहते हैं तो रेडीमेड बाथ केबिन आपके लिए ही बने समझिए। तकरीबन दो लाख बीस हजार रुपये की कीमत से शुरु होने वाले इन बाथ केबिन्स की आगरा व आसपास के शहरों में काफी डिमांड है। इन केबिन्स में नहाने की सारी सुविधा होती है। गर्म-ठंडे पानी के नलों के अलावा शावर भी फिट किया जाता है। साथ ही म्यूजिक सिस्टम की भी व्यवस्था होती है। ग्लास के बने इन केबिन्स में ओजोनाइजर लगा होता है। यानि व्यक्ति के नहाने के कारण बाथरूम में जो कीटाणु पैदा होते हैं, वे ओजोनाइजर के कारण एक मिनट बाद स्वत: ही खत्म हो जाते हैं।
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सोने का बाथरूम
जी हां....सोने का बाथरूम। वर्तमान समय में जब सोने की कीमतें आसमान छू रही हैं, ऐसे में प्योर गोल्ड का बाथरूम होना....। यह बाथरूम हॉंगकॉंग में है और दुनिया का सबसे महंगा गोल्ड टॉयलेट है। इस वॉशरूम में सोने का कमोड, सोने का टॉयलेट पेपर डिस्पेंसर, सोने का वॉश बेसिन, सोने का कूड़ेदान और सोने की ही एयर कंडीशनिंग केबिनेट है। पूरे वॉशरूम में 380 किलो प्योर गोल्ड तथा 6,200 नग लगे हैं। यह बाथरूम लाम साई-विंग ने डिजाइन किया है। सन 2001 में इस टॉयलेट की कीमत 38 मिलियन हॉंग कॉंग डॉलर थी वहीं अब 80 मिलियन हॉंग कॉंग डॉलर है।
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अजब-गजब बाथरूम

कमोड में एमपी थ्री प्लेयर
टेक्नोलॉजी के इस युग में कमोड सीट हीटर, आॅटेमेटिक वॉशर और इलेक्ट्रॉनिक कंट्रोल्ड सीट तो चलन में आ ही चुकी है, एक कंपनी ने ऐसा कमोड तैयार किया है जिसमें एमपी थ्री प्लेयर लगा हुआ है। यह प्लेयर दीवार में लगाया जाता है। इसमें 16 क्लासिक धुनें हैं।

एक्वेरियम फीचर्स
आधुनिक बाथरूम में नए फीचर्स जोड़ने के लिए अमेरिका के आॅलिवर बैकर्ट द्वारा ऐसा कमोड तैयार किया गया है जिसमें लाइव एक्वेरियम लगा हुआ है।

बिना पानी का टायलेट
देखने में यह टॉयलेट किसी उड़न तश्तरी की तरह लगता है। इसमें न किसी तरह का केमिकल प्रयोग में लाया जाता है, न ही पानी। इलेक्ट्रिसिटी की भी इसमें जरूरत नहीं। बस इसमें एक कंटेनर लगा हुआ है।


ट्रांसपेरेंट लुक
यह टॉयलेट लंदन में पब्लिक के लिए बना हुआ है लेकिन इसकी खास बात यह है इसे यूज करने वाला व्यक्ति बाहर पब्लिक को देख सकता है लेकिन पब्लिक अंदर नहीं देख पाती। यह टॉयलेस ग्लास क्यूब का बना है। देश के मेट्रो सिटीज में भी ऐसे बाथरूम होटलों का हिस्सा बनते जा रहे हैं।

सिंहासन स्टाइल
इस टॉयलट की सीट इस तरह की बनी हुई है जैसे यह कोई सिंहासन हो। इसमें ऐश ट्रे, कैंडल होल्डर और हैंड पेंटेड बाउल रखा हुआ है। जब इसकी सीट को उठाया जाता है तो म्यूजिक बजता है।




कमोड की कहानी
फ्लैश....
आधुनिक रूप में कमोड जिस शेप में हमारे सामने है, उसे यहां तक पहुंचने में कई अवस्थाओं से गुजरना पड़ा है। कमोड के इतिहास में ऐसा कोई नाम नहीं है, जिसके बारे में कहा जा सके कि अमुक खास व्यक्ति ने फ्लश टॉयलेट का अविष्कार किया था। इसके साथ कई इंजीनियर्स का नाम जुड़ा हुआ है जिन्होंने सालों इस क्षेत्र में काम किया। हालांकि, इतना तो तय है कि फ्लश टॉयलेट का प्रयोग सिंधु घाटी की सभ्यता से हो रहा है। हड़प्पा और मोहन जोदड़ो शहरों में हर घर में फ्लश टॉयलेट थे। रोमन एम्पायर में भी फ्लश टॉयलेट का प्रयोग बहुत ज्यादा होता था। 


कमोड शब्द की जड़ें फ्रांस से जुड़ी हुई हैं। फ्रेंच में कमोड का अर्थ होता है सुविधाजनक अथवा आरामदायक। डिक्शनरी में कमोड का मतलब है, फर्नीचर का एक पीस जिसे वाश स्टैंड के रूप में प्रयोग किया जा सकता है। फ्रेंच में आज भी इसका मतलब ऐसी ड्रॉर है जिसमें छोटे पैर लगे होते हैं। मॉडर्न मार्केट में आने से पहले यूरोप में मिडिल क्लास इनका जमकर प्रयोग करती थी।
फ्लश टॉयलेट का अविष्कार वास्तव में किसने किया, इसे लेकर लोगों के बीच काफी मतभेद हैं। कुछ लोग हैं जिनका कहना है कि इसे बनाने का श्रेय अंग्रेज सैनिटरी इंजीनियर, थॉमस क्रैपर (1837-1910) को जाता है। दूसरी तरफ कुछ लोगों का कहना है कि अलेक्जेंटर कमिंग ने 1775 में फ्लशिंग डिवाइस का पेटेंट करा लिया था। इसके आधार पर ही मॉडर्न कमोड की नींव पड़ी। सर जॉन हैरिंग्टन ने भी 16वीं शताब्दी में एक ब्रोशर छपवाया था जिसमें कमोड के निर्माण को लेकर निर्देश दिए गए थे। जानकारों के मुताबिक सर हैरिंग्टन ने क्वीन एलिजाबेथ के लिए पहला फ्लश टॉयलेट बनाया था। 18 शताब्दी में जॉर्ज जेनिंग्स ने कमोड के लिए मैकेनिज्म तैयार किया।
कमोड में पानी बचाने का मैकेनिज्म 1980 में ब्रूस थॉम्पसन द्वारा तैयार किया गया। उन्होंने कमोड में फ्लश वॉल्यूम के लिए दो बटन लगाए। यह सिस्टम पूरे विश्व में प्रयोग में लाया जा रहा है। वर्तमान में ऐसे कमोड उपलब्ध हैं जिन्हें बैड के साइड में रखा जा सकता है। ये कमोड वृद्ध तथा बीमार लोगों के लिए बहुत उपयोगी हैं।


कम्पोस्ट टॉयलेट
यूं तो कम्पोस्ट टॉयलेट के बारे में धीरे-धीरे लोगों को जानकारी होने लगी है लेकिन अब भी लाखों लोग ऐसे हैं जिन्हें इस तरह के टॉयलेट की एबीसी भी नहीं पता। यहां तक कि उन्होंने इस तरह के टॉयलेट का नाम भी नहीं सुना होगा। कम्पोस्टिंग टॉयलेट, टॉयलेट सिस्टम का वह तरीका होता है जिसमें इंसानों के मल को कम्पोस्ट और डीहाइड्रेट किया जाता है ताकि इससे मिट्टी को उपजाऊ बनाया जा सके। कम्पोस्टिंग टॉयलेट कई तरह के आकार और डिजाइन में मार्केट में उपलब्ध है। इसमें या तो बहुत कम पानी उपयोग में आता है या फिर पानी का प्रयोग ही नहीं होता। इसके द्वारा ह्यूमैन्योर (इंसानों के मल से खाद) बनाई जाती है। इस उद्देश्य के लिए पहला कम्पोस्टिंग टॉयलेट सिस्टम स्कैनडिनाविया में 60 के दशक में तैयार किया गया था। वहां से यह आइडिया नॉर्थ अमेरिका में चला गया, जहां मॉडल्स को डिजाइन किया जाता था और उन्हें बाजार में बेचा जाता था। कम्पोस्टिंग टॉयलेट सिस्टम के मैन्यूफैक्चर्स में कनाडा का नाम सबसे ऊपर है। आॅस्ट्रेलिया ने मार्केट में इस सिस्टम को लेकर संभावनाएं तलाशीं और 70 के दशक में वहां भी कई सिस्टम इन्सटॉल किए गए। कम्पोस्टिंग टॉयलेट्स अब विश्व के कई देशों में उपलब्ध हैं।



टॉयलेट पेपर की यात्रा 
अक्सर आप सोचते होंगे कि टॉयलेट पेपर का अविष्कार किसने किया? टॉयलेट पेपर से पहले लोग क्या प्रयोग में लाते होंगे? अपने दिमाग पर ज्यादा जोर मत डालिए, हम आपको बताते हैं टायलेट पेपर की संक्षिप्त यात्रा के बारे में-
टॉयलेट पेपर के प्रयोग में आने से पहले ग्रीस में पत्थर और मिट्टी के टुकड़े प्रयोग में लाए जाते थे।  प्राचीन रोमन्स स्पंज का प्रयोग करते थे
जिसके एक किनारे पर स्टिक लगी रहती थी। इन्हें नमक से भरे जग में रखा जाता था। इंग्लैंड में भेड़ की ऊन का प्रयोग होता था। भारत में पानी और उल्टे हाथ का प्रयोग किया जाता था। हवाई में नारियल के छिलके प्रयोग में लाए जाते थे। रोम में अमीर लोग ऊन और गुलाबजल का प्रयोग करते थे।
- ‘आॅफीशियल’ टॉयलेट पेपर 14 वीं शताब्दी में तैयार किया गया, जिसे सिर्फ इसी उद्देश्य के लिए बनाया गया था। इसे चीन के बादशाह ने आॅर्डर किया था।
- पश्चिमी अमेरिका में न्यूजपेपर्स और मैगजीन के पेज प्रयोग में लाए जाते थे।
- न्यू यॉर्क के जॉसेप सी गेयैटे ने पहला पैकेज्ड टॉयलेट पेपर यूएस में 1857 में तैयार किया। इसमें नमी युक्त मेडिकेटेड शीट्स फ्लैट शीट्स थीं।
- रॉल्ड टॉयलेट पेपर जो इन दिनों प्रचिलत हैं, उन्हें 1880 में तैयार किया गया। उसके बाद कई कंपनिया इस क्षेत्र में आ गईं।
- अमेरिका में टॉयलेट पेपर की शॉर्टेज 1973 में महसूस की गई।
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ये भी जानिए 
- वर्ल्ड टॉयलेट डे प्रतिवर्ष 19 नवंबर को मनाया जाता है।
-  फिल्म साइको ऐसी पहली मूवी थी जिसमें पहली बार आॅनस्क्रीन फ्लशिंग टॉयलेट दिखाया गया था। इस सीन के कारण फिल्म निर्माताओं के पास शिकायतों का ढेर लग गया था।
- टॉयलेट एयर फ्रेशनर के रूप में सबसे पहले अनार के दानों में लौंग लगाकर प्रयोग में लाया जाता था।
- एक तिहाई अमेरिकन्स उस वक्त फ्लश करते हैं जब वे सीट पर बैठे होते हैं।
- 40,000 अमेरिकन्स केहर साल घायल होने का कारण टॉयलेट्स होते हैं।
- टॉयलेट पेपर का स्टैंडर्ड साइज 4.5 बाय 4.5 होता है।
- डेंटिस्ट का मुताबिक टूथब्रश को टॉयलेट से छह फीट की दूरी पर रखा जाना चाहिए ताकि फ्लश के दौरान वायु में उड़ने वाले पार्टिकल्स टूथ ब्रश तक न पहुंचें।
- भारत में प्रतिदिन 900 मिलियन मूत्र तथा 135 मिलियन किलोग्राम मल त्याग किया जाता है।
- आमतौर पर एक व्यक्ति जिंदगी के तीन साल टॉयलेट में बैठकर बिताता है।
 - 1992 में हुए एक सर्वे में ब्रिटेन के पब्लिक टॉयलेट को दुनिया में सबसे खराब स्थिति में बताया गया था। उसके बाद थाईलैंड, ग्रीस और फ्रांस के टॉयलेट्स थे।