Powered By Blogger

Monday 4 February 2013

गुरू...रायता फैल गया!!!


न जनाब, हम आपको किसी दावत का किस्सा नहीं सुना रहे जहां किसी ‘सिड़ी’ ने रायता फैला दिया हो। न ही किसी के चौके के भीतर बर्तनों में तांक-झांक कर रहे हैं। बात जे है कि हम आपको आगरा की कॉमन भाषा के बारे में जानकारी दे रहे हैं। यहां जरा-जरा सी बात पर रोज ‘रायता फैलता है। बात-बेबात ‘कर्री वाली चिरांदें’ हुआ करती हैं। नैक-नैक से ईश्यू पर लोग मल्लाही सुनानें लगते हैं। नलों पे बान्टियां लेके लोग सबेरे से स्याम तक बैठे रहते हैं, पर मरे नल आते ही नहीं है। खैर...हमें इस लफड़े से क्या लेना देना...आप भी इस पचड़े में मत पढ़िए। हां, मगर जे आइटम जरूर पढ़िए।

जे तो आप सभी को पता है कि हमारे इंडिया की विशेषता रही है अनेकता में एकता। अब चूंकि इंडिया में आगरा भी महत्वपूर्ण स्थान रखता है इसलिए यहां की एकता की हम कह नहीं सकते, हां अनेकता जरूर दिखाई देती है। इस अनेकता का बोलता-बालता उदाहरण है यहां की बोली। जिस भी मुहल्ले में जाएंगे...बोली डिफरेंट पाएंगे। ‘चौरें छोरा...से लेकर क्यों बे लड़के’ तक का सफर काटते हुए इस बोली को बेलनगंज, घटिया, माईथान, गोकुलपुरा, जगदीशपुरा, ढोलीखार, फौव्वारा, किनारी बाजार, मंटोला, नाई की मंडी आदि जगहों से गुजरना पड़ता है। कहीं-कहीं मुहल्ले वाइज... अबे ओ, ‘दायरी के’...आदि संबोधन भी सुनने को मिल जाते हैं।  यहां किसी मुहल्ले में सुबह होती है तो कहीं सबेरा। सिदौसी होते ही सूर्य देव किसी इलाके में घाम निकालते हैं तो कहीं पर धूप। वैरी फ्लेक्सिबिलिटी। खैर...हम आगे बढ़ते हैं और मुद्दे पर आते हैं। हां तो अपने आगरे में जे मुई स्लैंग लेंग्वेज आई कहां से और इसके उतपत्तिकर्ता कौन थे, इस बारे में हमने शहर के कई लोगों से पूछी। ज्यादातर का जवाब था जैसे-जैसे शहर में अलग-अलग जगह के लोगों ने अपना ठिकाना बनाया, वैसे-वैसे अपनी लेंग्वेज की भी बसावट कर दी। प्रसिद्ध रंगकर्मी जितेंद्र रघुवंशी आगरा की बोली के बारे में बताते हुए कहते हैं कि यहां की बोली की अपनी विशेषता है। शहर एक होते हुए भी बोली के कई रूप देखने को मिलते हैं। यूं तो शहर की बोली खड़ी बोली ही है, लेकिन उसमें ब्रजभाषा का प्रभाव भी देखने को मिलता है। आगरा में मुस्लिम बहुल इलाकों में एक खास तरह की बोली सुनने को मिलती है तो गांव से काम-धंधे की तलाश में शहर में आकर बसे लोगों की बोली में भी काफी अंतर है। यही कारण है कि यहां की भाषा अब खिचड़ी भाषा हो गई है। यह भाषा की समृद्धि की निशानी है। स्लैंग के बारे में उनका कहना है कि ये स्लैंग कुछ और नहीं बल्कि लोक भाषाओं और विभिन्न पेशों में अपनाए जाने वाले खास शब्द (जार्गन्स) हैं जिन्हें आम लोगों ने स्वीकार कर लिया है। यहां की खड़ी बोली में स्लैंग का छौंक लग गया है जिसके चलते इसका नया रूप सामने आ रहा है। उदाहरण के लिए....तैने मुझसे पूछी, तेरे मौंह पे बारह क्यों बज रहे हैं। इसी तरह स्टूडेंट्स का खास शब्द है ‘फंडा’। कमीशन के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले शब्द ‘छब्बी’ को भी आम बोल-चाल की भाषा में मान्यता मिल गई है। इसी तरह खुसकैठ (बुरा आदमी, बुरी नजर अदि के लिए प्रयोग होता है, नकारात्मक संदर्भ में) व इसका विलोम करकैठ ( अच्छी नजर) का प्रयोग भी शहर के खास इलाकों में किया जा रहा है।
यहां की बोली का एक उदाहरण देते हुए जितेंद्र ने बताया कि वे पिछले दिनों ताजगंज में आयोजित एक कार्यक्रम में गए थे। वहां माइक पर एनाउंस किया जा रहा था,.....‘साइकिलों को हटालें अपनियों को...’
जब लोग अपनी को भी प्लूरल बना रहे हैं तो आगे और क्या कहा जाए...। गोकुलपुरा की बोली पर आधारित अमृतलाल नागर के नाटक सेठ बांकेमल का विगत दिनों मंचन कराने वाले जितेंद्र कहते हैं,
आ रिया है, खा रिया है...अध्यक्ष को हध्यक्ष, बाल्टी को बांटी, मतलब को मतबल, लखनऊ को नखलऊ शहर के कई मुहल्लों में बोला जाता है।
प्रख्यात कवि सोम ठाकुर के मुताबिक लोकजीवन के अंदर कई ऐसे शब्द होते हैं जो खुद ब खुद लोगों द्वारा बना लिए जाते हैं, ऐसा ही यहां बोला जाने वाला एक शब्द है ‘चंडूखाने की खबर’। चंडू एक नशीली चीज होती है जिसे लेटकर पिया जाता है। चंडू पीने के बाद लोग बहकी-बहकी बातें करने लगते हैं। इसी से लोगों ने ‘चंडूखाने की खबर’ शब्द बना लिया। यानि बहकी हुई खबर। कवि सोम कहते हैं व्यपारी वर्ग की भी अपनी अलग बोली है, बेलनगंज में व्यापारी वर्ग, चाहें वह वैश्य हो या स्वर्णकार...सभी खाना खाने को जीमना कहते हैं। रात के खाने को यहां ब्यालू कहा जाता है....व्यापारी एक दूसरे से कहते हैं...आओ लाला ब्यालू कर लो....। यहां झगड़े को टंटा, लफड़ा, चिरांद आदि कहा जाता है। बात-बेबात की लड़ाई के लिए कहा जाता है, ‘क्या रायता फैला रखा है..?’
यहां की बोली के बारे में रंगकर्मी अनिल शुक्ला कहते हैं कि यहां की भाषा में एक तरफ ब्रज का टच देखने को मिलता है तो दूसरी तरफ शहर का हिस्टॉरिकल बैकग्राउंड मुगलकालीन रहा है। जा रिया है, खा रिया है....आदि शब्द मुगल पीरियड से चले आ रहे हैं वहीं खा रह्यौ है, जा रह्यौ है आदि शब्द ब्रज के हैं। इन दोनों भाषाओं का मिश्रण आगरा की भाषा में है। नजीर की भाषा पर कार्य करने वाली केंद्रीय हिंदी संस्थान की रीडर ज्योत्सना रघुवंशी कहती हैं कि भाषाएं दो तरह की होती हैं, एक बोलचाल की भाषा और दूसरी लिखने वाली भाषा। शहर में बोली जाने वाली स्लैंग शब्दावली पुराने समय से चली आ रही है। नजीर ने अपनी कविता में ऐसा ही शब्द प्रयोग किया है ढड्डो...जिसका अर्थ है तेज तर्रार औरत। बात दीगर है कि ये स्लैंग परिष्कृत स्लैंग है। भसड़ हो गई या क्या चिरांद है, आदि स्लैंग मुहावरे हैं। ये समय के साथ बोलचाल में आते रहते हैं। इसी तरह बकचोदी (बातें बनाना) झोल.. आदि शब्द भी शहर की बोलचाल का हिस्सा बन गए हैं।
----------------------
यहां गालियां भी प्यार में दी जाती हैं
शहर का एक हिस्सा है ताजगंज। बिल्कुल जुदा। यहां भी भाषा भी इतनी अलग है कि आप अगर यहां टूरिस्ट बनकर जाएंगे तो ऐसे नए-नए शब्दों से आपका साबका होगा कि आपको समझ ही नहीं आएगा कि आप आगरा में हैं या विदेश में। अगर आगराइट बनकर जाएंगे...तो कोई बात नहीं। सब कुछ नॉर्मल लगेगा। यहां पर्यटकों को कनविंस करने की अपनी भाषा है। इस भाषा के बारे में कभी और बात करेंगे लेकिन अभी आपको यहां के कॉमन शब्दों की जानकारी देते हैं। यहां ‘साला’ शब्द इतना आम है कि ‘प्यार और मार’ दोनों में काम आता है। ताजगंज निवासी तथा पेशे से वकील मिर्जा शमीम बेग कहते हैं कि ‘भाड़ में जा’, चिकचिक शब्द भी काफी बोले जाते हैं। चूंकि आगरा में अवध तथा दिल्ली दोनों की छाप है अत: बोली भी मिली-जुली है। मिर्जा बेग के अनुसार ताजगंज में पुरानी आबादी मुसलमानों और बनियों की थी। सिंधी-पंजाबी अपने साथ कोई ऐसे शब्द नहीं लेकर आए जिन्हें बतौर स्लैंग माना जा सके। यहां बोले जाने वाले स्लैंग्स का श्रेय लालाओं, मुसलमानों और आज के युवाओं को जाता है।


जैसा व्यवसाय, वैसी भाषा
सेंट जॉन्स कॉलेज के हिंदी के पूर्व विभागाध्यक्ष डा. श्रीभान शर्मा कहते हैं चूंकि आगरा ब्रजभाषा का गढ़ रहा है अत: तब समय लोगों ने अपने अनुसार मुहावरे गढ़ लिए थे, चूंकि ये मानक रूप में सामने नहीं आ पाए, इसलिए बोलचाल तक ही सीमित रह गए।  जैसे- झड़े में कूड़ा फैलाना (सुलझी हुई बात को बिगाड़ देना), खरी मजूरी चोखा काम। डा. शर्मा के मुताबिक यहां हर क्षेत्र की भाषा अलग है। कुछेक उदाहरण प्रस्तुत हैं-
बेलनगंज की भाषा
‘चौंरे तू का कर रहौ है? कक्का हौं तो पानी भर रहयौ हूं।’
रावतपाड़े की बोली में भदावरी प्रभाव देखने को मिलता है। यहां की भाषा कुछ इस तरह है-
‘बिन्नौ बिनकौ काम बिनते करवालौ।’
मानपाड़े की बोली में उर्दू, फारसी का प्रभाव देखने को मिलता है। जैसे-
‘अमां भाई तुम तो अफलातून बने जा रहे हो....चबर-चबर च्यों कर रहे हो?’
गोकुलपुरा की बोली में मारवाड़ियों का प्रभाव है। यहां शुरुआत में गुजरात के नागर ब्राह्मण और मारवाड़ी रहे थे। अत: इस बोली में दोनों ही स्थानों का प्रभाव देखने को मिलता है।

सावन की सुहानी शाम दाल-बाटी के नाम



झमाझम बारिश में जब तक घी में तरबतर बाटी और चटपटी दाल का स्वाद मुंह तक न पहुंचें, तब तक सावन अधूरा समझिए। उस पर हाथ के रास्ते मुंह में फूटता चूरमे का लड्डू। सूखी आलू की सब्जी और सकोरों में परोसी गई गर्मागर्म खीर..। क्यों, आ गया ना मुंह में पानी। ये तो बानगी भर है जनाब, अगर आप शहर के फ्लैश बैक में जाएंगे तो सावन-भादों के महीने में दालबाटी की ऐसी दावतें नजर आएंगी कि आप यह सोचने पर मजबूर हो जाएंगे कि भला ऐसा क्या स्वाद है इस छोटी सी बाटी में कि लोगों को इसके आगे छप्पन भोग फीके नजर आते है। 

छप्पन भोग तो साल के 12 महीने खाए जा सकते हैं लेकिन सावन में बाटी खाने का अपना जो मजा है उसकी बात ही निराली है। यूं तो बाटी इन दिनों घर-घर में खाई जा रही हैं लेकिन साठ-सत्तर के दशक में बगीचियों में बाटी की जो दावतें होती थीं, उनका इंतजार पूरे साल रहता था। उन दिनों शहर की बड़ी-छोटी जितनी भी बगीचियां थी, सावन में सारी बुक हो जाती थीं। कभी सर्राफा एसोशिएसन की दावत होती थी तो कभी ट्रांसपोर्ट एसोसिएशन की। कभी लायंस क्लब दावत पर अपने सदस्यों को आमंत्रित करता था तो कभी वकीलों का संगठन दालबाटी का मजा लेता था। कुछ नहीं हुआ तो आपस में दस-बीस लोग मिलकर ही दालबाटी की दावत लेते थे। और तो और जिन युवतियों की शादी पक्की हो जाती थी, उनकी ससुराल वालों को भी दालबाटी की दावत पर आमंत्रित किया जाता था। दालबाटी की पर्सनल दावतों के मुकाबले संगठन की दावतें ज्यादा हुआ करती थीं। सात-आठ बार दालबाटी की दावतों का बगीची में आनंद ले चुके बल्केश्वर निवासी अंबरीश गौड़ कहते हैं कि उन दिनों दालबाटी पूरे दिन का तामझाम हुआ करती थी। बगीची में लोग सुबह नौ-दस बजे ही पहुंच जाते थे। दंड पेलने के शौकीन कई लोग तो वहीं पर दंड पेलने के बाद मालिश कराते थे और बगीची के कुंए पर ही नहाते थे। नहा-धोकर जब सब लोग फ्री हो जाते थे तब आती थी नाश्ते की बारी। हलवाइयों को खास हिदायत दे जाती थी कि सुबह से ही पहुंच जाएं, नाश्ते में देरी नहीं होनी चाहिए। अत: जैसे ही लोग तैयार होते, तुरंत गरम-गरम बेड़ई और आलू की सब्जी परोस दी जाती। कढ़ाही से उतरने की देर नहीं होती कि लोग झट से बेढ़ई सटक जाया करते थे। नाश्ते के कुछ देर बाद फलों की चाट परोसी जाती थी। उसके बाद लोग ताश पत्ते खेलने में मशगूल हो जाते। गाने के शौकीन अन्त्याक्षरी खेलते थे तो कहीं ख़्यालबाजी होती थी। लोगों को उस दिन जैसे मौका चाहिए होता था अपना हुनर दिखाने का। तान छिड़ती थीं, गीत गाए जाते थे। सावन के मल्हार और ढोला चुन-चुन कर सामने आते थे। गीत गाने के बाद गले को तर करने के लिए भी तो कुछ चाहिए, सो शुरू हो जाती दूध-बादाम की ठंडाई, जिसमें घोंटी जाती थी भांग। कुल्हड़ के कुल्हड़ गटकने के बाद भंग की तरंग में लोग चूर हो जाते थे। फिर लगती थी कसकर भूख। शाम होते-होते बाटी की खुश्बू से बगीची महक उठती थी। पंगत लग जाती थी। पत्तलों पर बाटी, सकोरों में दाल और सकोरों में ही खीर...साथ में सूखी सब्जी और चटनी। चूरमे के लडड्ू की बात तो पूछिए ही मत, झिककर खाते थे। इतने में ठंडी हवा का झोंका अपने संग हल्की-हल्की बौछार ले आता था। मानो कहना चाहता हो कि हमें भी बाटी का आनंद लेना है। कोयलें कूंकती थीं, पेड़ों से बूंदें छनकर शरीर पर गिरती थीं। उस वक्त मन इतना आह्रलादित हो उठता था कि वो दिन साल भर याद रहता। लेकिन, अब उन दिनों की यादें ही बाकी रह गई हैं। बेलनगंज निवासी भोलेराम कहते हैं कि यूं तो अब भी दालबाटी की दावतें होती हैं लेकिन अब स्थान बदल गए हैं। बगीची बची नहीं, अत: लोग फार्म हाउस, मैरिज होम, स्कूल परिसरों में दालबाटी का आयोजन करने लगे हैं।
--------------
हलवाइयों ने शुरू किया बाटी बनाना
एक समय था जब बाटी खाने के लिए लोगों को पूरे एक साल इंतजार करना पड़ता था। सावन का महीने में जब दालाबाटी की दावत होती, वे सिर्फ तभी बाटी खा पाते थे। लेकिन, अब ऐसा नहीं है। अब कई हलवाइयों ने दाल-बाटी बनाना शुरू कर दिया है। अत: लोग आए दिन दाल-बाटी का मजा लेते रहते हैं। इसके अलावा रेस्टोरेंट्स में भी बाटी कभी भी खाई जा सकती है। सावन-भादों की बात छोड़िए, सर्दी-गर्मी में होने वाली शादियों में भी बाटी विशेषतौर पर बनाई जा रही है। शहर में सबसे पहले बाटी तैयार करने वाले भगत हलवाई, बेलनगंज के संचालक प्रदीप भगत ने बताया कि करीब पच्चीस साल पहले उन्होंने बाटी बनाने की शुरुआत की थी। चूंकि तब लोगों में सावन के महीने में बाटी का विशेष क्रेज हुआ करता था अत: उन्होंने सोचा कि क्यों न वे बाटी की बिक्री किया करें। प्रदीप कहते हैं कि जिस साल उन्होंने पहली बार बाटी तैयार की थी, उस साल बिक्री थोड़ी कम हुईं लेकिन उसके बाद से साल दस साल  दाल-बाटी बहुत लोकप्रिय होती जा रही है। पच्चीस साल पहले भगत हलवाई तीन रुपये में रुपये में दो बाटी और एक चूरमे का लड्डू दिया करते थे लेकिन अब भरवां बाटी का एक पीस पच्चीस रुपये का है। एक किसी को दो बाटी और एक लड्डू खाना है तो इसकी कीमत 60-70 रुपये होती है। बेलनगंज के बाद अंजना, दयालबाग और अन्य ब्रांचों पर भी दालबाटी की बिक्री शुरू हो गई। अब आलम यह है कि शहर के अधिकांश बड़े हलवाई सावन में दाल-बाटी बनाते हैं।
------------
महिला संगठन भी ले रहे दालबाटी का स्वाद
कुछेक अपवादों को छोड़ दिया जाए तो दालबाटी की दावतों में शुरू से ही महिलाओं को आमंत्रित नहीं किया जाता है। जब महिलाएं हर क्षेत्र में पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रही हैं तो वे दालबाटी खाने में पीछे कैसे रह सकती हैं। अत: दालबाटी खाने का इंतजाम उन्होंने खुद कर लिया है। सावन में महिला संगठनों द्वारा आयोजित किए जाने वाले हरियाली तीज कार्यक्रमों में, अधिकांश संगठन दालबाटी का आयोजन करते हैं। इससे महिलाओं के मन में यह मलाल नहीं रहता कि वे दालबाटी का लुत्फ नहीं ले पाईं।
------------
ओवन ने किया मुश्किल काम आसान
दौर गया जब कंडे पर बाटी सेंकते-सेंकते महिलाएं परेशान हो उठती थीं लेकिन फिर भी पर्याप्त संख्या में बाटी नहीं बन पाती थीं। जबसे किचेन में ओवन ने स्थान जमाया है, बाटी बनाना बहुत आसान हो गया है। अब वे गाहे-बगाहे बाटी बनाती रहती हैं। इसलिए सावन में बाटी बनाने को लेकर उनके मन में खास क्रेज नहीं रहा।
------------
बड़े हो गए संगठन, बढ़ी सदस्यों की संख्या
यूं तो कई संगठन अब भी हलवाई की बगीची, दादाबाड़ी आदि स्थानों पर दालबाटी का कार्यक्रम आयोजित करते हैं लेकिन चूंकि अब संगठन विशाल हो गए हैं तथा उनके सदस्यों की संख्या बढ़ गई है, अत: उन्हें ऐसी जगह की तलाश रहती है जहां सदस्य आराम से बैठ सकें और बिजली-पानी आदि की पर्याप्त सुविधा हो। चूंकि इन दिनों उमस अधिक रहती है, अत: लोगों की कोशिश होती है कि इस काम के लिए एसी हॉल उपलब्ध हो जाए। यही कारण है कि नेशनल चेंबर आॅफ कॉर्मस एंड इंडस्ट्रीज द्वारा अग्रवन में दालबाटी का कार्यक्रम आयोजित किया जाता है। इन दिनों देव सो जाने के कारण शादियां व अन्य मांगलिक कार्यक्रम आयोजित नहीं होते, अत: मैरिज होम भी खाली पड़े रहते हैं। कई संगठन दालबाटी की दावत के लिए मैरिज होम्स का भी चयन करते हैं।

- ये थी प्रमुख बगीचियां
हलवाई की बगीची
बंबई वालों की बगीची
बौहरे रामगोपाल की बगीची
बान वालों की बगीची
हरिया की बगीची
आटे वालों की बगीची
कैलाश मंदिर तथा कीठम
इनके अलावा दसियों छोटी-मोटी बगीचियों में भी दालबाटी की दावत दी जाती थी।
------------

ताजमहल में रविवार को होती थी दावत
बगीचियों के अलावा ताजमहल भी दालबाटी आयोजन का प्रमुख स्थान हुआ करता था। ताजमहल पर तीन-चार बार दालबाटी का आनंद लेने वाले मोहम्मद आमिल ने बताया कि यह बात करीब पैंतीस साल पहले की है। तब ताज के भीतर आने-जाने तथा खाने-पीने का सामान ले जाने पर कोई रोक-टोक नहीं थी। अत: ताजगंज में रहने वाले लोग अधिकांशत: ताज के भीतर ही दालबाटी की दावत रखते थे। यह आयोजन रविवार के दिन होता था। वर्तमान में जहां सुलभ शौचालय बना हुआ है, उसके बांयीं तथा दायीं तरफ बाटी की दावत होती थी। ताज के भीतर खाना नहीं बनाया जाता था अत: बाटी बाहर से बनवाकर लाते थे।