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Monday 4 February 2013

सावन की सुहानी शाम दाल-बाटी के नाम



झमाझम बारिश में जब तक घी में तरबतर बाटी और चटपटी दाल का स्वाद मुंह तक न पहुंचें, तब तक सावन अधूरा समझिए। उस पर हाथ के रास्ते मुंह में फूटता चूरमे का लड्डू। सूखी आलू की सब्जी और सकोरों में परोसी गई गर्मागर्म खीर..। क्यों, आ गया ना मुंह में पानी। ये तो बानगी भर है जनाब, अगर आप शहर के फ्लैश बैक में जाएंगे तो सावन-भादों के महीने में दालबाटी की ऐसी दावतें नजर आएंगी कि आप यह सोचने पर मजबूर हो जाएंगे कि भला ऐसा क्या स्वाद है इस छोटी सी बाटी में कि लोगों को इसके आगे छप्पन भोग फीके नजर आते है। 

छप्पन भोग तो साल के 12 महीने खाए जा सकते हैं लेकिन सावन में बाटी खाने का अपना जो मजा है उसकी बात ही निराली है। यूं तो बाटी इन दिनों घर-घर में खाई जा रही हैं लेकिन साठ-सत्तर के दशक में बगीचियों में बाटी की जो दावतें होती थीं, उनका इंतजार पूरे साल रहता था। उन दिनों शहर की बड़ी-छोटी जितनी भी बगीचियां थी, सावन में सारी बुक हो जाती थीं। कभी सर्राफा एसोशिएसन की दावत होती थी तो कभी ट्रांसपोर्ट एसोसिएशन की। कभी लायंस क्लब दावत पर अपने सदस्यों को आमंत्रित करता था तो कभी वकीलों का संगठन दालबाटी का मजा लेता था। कुछ नहीं हुआ तो आपस में दस-बीस लोग मिलकर ही दालबाटी की दावत लेते थे। और तो और जिन युवतियों की शादी पक्की हो जाती थी, उनकी ससुराल वालों को भी दालबाटी की दावत पर आमंत्रित किया जाता था। दालबाटी की पर्सनल दावतों के मुकाबले संगठन की दावतें ज्यादा हुआ करती थीं। सात-आठ बार दालबाटी की दावतों का बगीची में आनंद ले चुके बल्केश्वर निवासी अंबरीश गौड़ कहते हैं कि उन दिनों दालबाटी पूरे दिन का तामझाम हुआ करती थी। बगीची में लोग सुबह नौ-दस बजे ही पहुंच जाते थे। दंड पेलने के शौकीन कई लोग तो वहीं पर दंड पेलने के बाद मालिश कराते थे और बगीची के कुंए पर ही नहाते थे। नहा-धोकर जब सब लोग फ्री हो जाते थे तब आती थी नाश्ते की बारी। हलवाइयों को खास हिदायत दे जाती थी कि सुबह से ही पहुंच जाएं, नाश्ते में देरी नहीं होनी चाहिए। अत: जैसे ही लोग तैयार होते, तुरंत गरम-गरम बेड़ई और आलू की सब्जी परोस दी जाती। कढ़ाही से उतरने की देर नहीं होती कि लोग झट से बेढ़ई सटक जाया करते थे। नाश्ते के कुछ देर बाद फलों की चाट परोसी जाती थी। उसके बाद लोग ताश पत्ते खेलने में मशगूल हो जाते। गाने के शौकीन अन्त्याक्षरी खेलते थे तो कहीं ख़्यालबाजी होती थी। लोगों को उस दिन जैसे मौका चाहिए होता था अपना हुनर दिखाने का। तान छिड़ती थीं, गीत गाए जाते थे। सावन के मल्हार और ढोला चुन-चुन कर सामने आते थे। गीत गाने के बाद गले को तर करने के लिए भी तो कुछ चाहिए, सो शुरू हो जाती दूध-बादाम की ठंडाई, जिसमें घोंटी जाती थी भांग। कुल्हड़ के कुल्हड़ गटकने के बाद भंग की तरंग में लोग चूर हो जाते थे। फिर लगती थी कसकर भूख। शाम होते-होते बाटी की खुश्बू से बगीची महक उठती थी। पंगत लग जाती थी। पत्तलों पर बाटी, सकोरों में दाल और सकोरों में ही खीर...साथ में सूखी सब्जी और चटनी। चूरमे के लडड्ू की बात तो पूछिए ही मत, झिककर खाते थे। इतने में ठंडी हवा का झोंका अपने संग हल्की-हल्की बौछार ले आता था। मानो कहना चाहता हो कि हमें भी बाटी का आनंद लेना है। कोयलें कूंकती थीं, पेड़ों से बूंदें छनकर शरीर पर गिरती थीं। उस वक्त मन इतना आह्रलादित हो उठता था कि वो दिन साल भर याद रहता। लेकिन, अब उन दिनों की यादें ही बाकी रह गई हैं। बेलनगंज निवासी भोलेराम कहते हैं कि यूं तो अब भी दालबाटी की दावतें होती हैं लेकिन अब स्थान बदल गए हैं। बगीची बची नहीं, अत: लोग फार्म हाउस, मैरिज होम, स्कूल परिसरों में दालबाटी का आयोजन करने लगे हैं।
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हलवाइयों ने शुरू किया बाटी बनाना
एक समय था जब बाटी खाने के लिए लोगों को पूरे एक साल इंतजार करना पड़ता था। सावन का महीने में जब दालाबाटी की दावत होती, वे सिर्फ तभी बाटी खा पाते थे। लेकिन, अब ऐसा नहीं है। अब कई हलवाइयों ने दाल-बाटी बनाना शुरू कर दिया है। अत: लोग आए दिन दाल-बाटी का मजा लेते रहते हैं। इसके अलावा रेस्टोरेंट्स में भी बाटी कभी भी खाई जा सकती है। सावन-भादों की बात छोड़िए, सर्दी-गर्मी में होने वाली शादियों में भी बाटी विशेषतौर पर बनाई जा रही है। शहर में सबसे पहले बाटी तैयार करने वाले भगत हलवाई, बेलनगंज के संचालक प्रदीप भगत ने बताया कि करीब पच्चीस साल पहले उन्होंने बाटी बनाने की शुरुआत की थी। चूंकि तब लोगों में सावन के महीने में बाटी का विशेष क्रेज हुआ करता था अत: उन्होंने सोचा कि क्यों न वे बाटी की बिक्री किया करें। प्रदीप कहते हैं कि जिस साल उन्होंने पहली बार बाटी तैयार की थी, उस साल बिक्री थोड़ी कम हुईं लेकिन उसके बाद से साल दस साल  दाल-बाटी बहुत लोकप्रिय होती जा रही है। पच्चीस साल पहले भगत हलवाई तीन रुपये में रुपये में दो बाटी और एक चूरमे का लड्डू दिया करते थे लेकिन अब भरवां बाटी का एक पीस पच्चीस रुपये का है। एक किसी को दो बाटी और एक लड्डू खाना है तो इसकी कीमत 60-70 रुपये होती है। बेलनगंज के बाद अंजना, दयालबाग और अन्य ब्रांचों पर भी दालबाटी की बिक्री शुरू हो गई। अब आलम यह है कि शहर के अधिकांश बड़े हलवाई सावन में दाल-बाटी बनाते हैं।
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महिला संगठन भी ले रहे दालबाटी का स्वाद
कुछेक अपवादों को छोड़ दिया जाए तो दालबाटी की दावतों में शुरू से ही महिलाओं को आमंत्रित नहीं किया जाता है। जब महिलाएं हर क्षेत्र में पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रही हैं तो वे दालबाटी खाने में पीछे कैसे रह सकती हैं। अत: दालबाटी खाने का इंतजाम उन्होंने खुद कर लिया है। सावन में महिला संगठनों द्वारा आयोजित किए जाने वाले हरियाली तीज कार्यक्रमों में, अधिकांश संगठन दालबाटी का आयोजन करते हैं। इससे महिलाओं के मन में यह मलाल नहीं रहता कि वे दालबाटी का लुत्फ नहीं ले पाईं।
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ओवन ने किया मुश्किल काम आसान
दौर गया जब कंडे पर बाटी सेंकते-सेंकते महिलाएं परेशान हो उठती थीं लेकिन फिर भी पर्याप्त संख्या में बाटी नहीं बन पाती थीं। जबसे किचेन में ओवन ने स्थान जमाया है, बाटी बनाना बहुत आसान हो गया है। अब वे गाहे-बगाहे बाटी बनाती रहती हैं। इसलिए सावन में बाटी बनाने को लेकर उनके मन में खास क्रेज नहीं रहा।
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बड़े हो गए संगठन, बढ़ी सदस्यों की संख्या
यूं तो कई संगठन अब भी हलवाई की बगीची, दादाबाड़ी आदि स्थानों पर दालबाटी का कार्यक्रम आयोजित करते हैं लेकिन चूंकि अब संगठन विशाल हो गए हैं तथा उनके सदस्यों की संख्या बढ़ गई है, अत: उन्हें ऐसी जगह की तलाश रहती है जहां सदस्य आराम से बैठ सकें और बिजली-पानी आदि की पर्याप्त सुविधा हो। चूंकि इन दिनों उमस अधिक रहती है, अत: लोगों की कोशिश होती है कि इस काम के लिए एसी हॉल उपलब्ध हो जाए। यही कारण है कि नेशनल चेंबर आॅफ कॉर्मस एंड इंडस्ट्रीज द्वारा अग्रवन में दालबाटी का कार्यक्रम आयोजित किया जाता है। इन दिनों देव सो जाने के कारण शादियां व अन्य मांगलिक कार्यक्रम आयोजित नहीं होते, अत: मैरिज होम भी खाली पड़े रहते हैं। कई संगठन दालबाटी की दावत के लिए मैरिज होम्स का भी चयन करते हैं।

- ये थी प्रमुख बगीचियां
हलवाई की बगीची
बंबई वालों की बगीची
बौहरे रामगोपाल की बगीची
बान वालों की बगीची
हरिया की बगीची
आटे वालों की बगीची
कैलाश मंदिर तथा कीठम
इनके अलावा दसियों छोटी-मोटी बगीचियों में भी दालबाटी की दावत दी जाती थी।
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ताजमहल में रविवार को होती थी दावत
बगीचियों के अलावा ताजमहल भी दालबाटी आयोजन का प्रमुख स्थान हुआ करता था। ताजमहल पर तीन-चार बार दालबाटी का आनंद लेने वाले मोहम्मद आमिल ने बताया कि यह बात करीब पैंतीस साल पहले की है। तब ताज के भीतर आने-जाने तथा खाने-पीने का सामान ले जाने पर कोई रोक-टोक नहीं थी। अत: ताजगंज में रहने वाले लोग अधिकांशत: ताज के भीतर ही दालबाटी की दावत रखते थे। यह आयोजन रविवार के दिन होता था। वर्तमान में जहां सुलभ शौचालय बना हुआ है, उसके बांयीं तथा दायीं तरफ बाटी की दावत होती थी। ताज के भीतर खाना नहीं बनाया जाता था अत: बाटी बाहर से बनवाकर लाते थे।

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